Sunday, April 24, 2011

l लग्नशील अधिकारी कब तक पाएंगे सच बोलने की सजा

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लग्नशील अधिकारी कब तक पाएंगे सच बोलने की सजा?
4/17/2011 1:52:29 PM
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यह कहानी नहीं है, एक सच्चाई है, जो हम में से किसी के भी साथ घट सकती है, हमारी सरकार ने आर.टी.आई. एक्ट बनाकर अपने एक दायित्व का निर्वाह तो कर लिया पर यह नहीं सोचा कि जो लोग सूचना के अधिकार का प्रयोग कर के सच को सामने लाने का साहस करेंगे उन्हें इस सरकार के नेता और नौकरशाह किस तरह से प्रताड़ित एवं अपमानित करके सजा देंगे? इस बारे में बचाव का कोई प्रावधान इस एक्ट में नहीं किया गया। इस घटना के 2 पात्र रवि श्रीवास्तव और अशोक सिंह, हिंदुस्तान पेट्रोलियम कारपोरेशन लिमिटेड (एच.पी.सी.एल.) में वरिष्ठ प्रबंधक व मुख्य प्रबंधक के पद पर कार्य करते थे। इसके अतिरिक्त पेट्रोलियम मंत्रालय के तहत आनेवाली 13 तेल कंपनियों की OSOA के नाम से कार्यरत फेडरेशन के कोषाध्यक्ष व अध्यक्ष भी थे। एच.पी.सी.एल. एवं बी.पी.सी.एल. का निजीकरण इन्हीं दोनों की अगुवाई में माननीय उच्च्तम न्यायालय ने रोक दिया था। बाद में सरकार ने एच.पी.सी.एल. को ओ.एन.जी.सी. के साथ विलय करना चाहा तो उसको भी इन लोगों ने प्रभावी प्रस्तुतीकरण कर रुकवा दिया था।

इन दोनों की इन्हीं उपलब्घियों के कारण सरकार इन्हें अपने निर्णय की राह में कांटा समझती थी और मंत्रालय इन्हीं के कारण कंपनियों का दोहन अपने मन मुताबिक नहीं कर पा रहा था। एच.पी.सी.एल. प्रबंधन व शास्त्री भवन में बैठे उनके आका किसी ऐसे मौके की तलाश में थे जिससे इनको किसी तरह कंपनी से निकाल दिया जाए। इनकी फेडरेशन भी पंगु हो जाए और कंपनियों के प्रंबधन निर्बाध रूप से अपना दमन चक्र चला सकें।

ऐसा एक सुअवसर एच.पी.सी.एल. प्रबंधन को मई 2008 में तब मिला जब कंपनी के अधिकारियों ने प्रबंधन के एक मनमाने निर्णय का विरोध किया। एच.पी.सी.एल. ने अपनी ही एक जे.वी. (हिंकोल) में कंपनी छोड़कर 2 साल पहले ही चले गए एक अधिकारी की 3 ग्रेड ऊपर नियुक्त कर के उसको हिंकोल का अध्यक्ष बना दिया जब कि इस पद के लिए उससे पहले कंपनी में 150 और उपयुक्त अधिकारी थे। 6 मई को एच.पी.सी.एल. की चेंबूर स्थित कालोनी में निर्देशक (मानव संसाधन) व महाप्रंबधक (मानव संसाधन) स्वयं आए जहां लगभग 400 अधिकारियों ने अपने हितों की रक्षा के लिए उन्हें आड़े हाथों लिया। फलस्वरूप अगले ही दिन 7 मई 2008 को रवि श्रीवास्तव एवं अशोक सिंह को आरोप पत्र थमा दिए गए।

इस मामले में उल्लेखनीय है कि जुलाई 2006 में पेट्रोलियम मंत्रालय ने तेल कंपनियो में एक ‘मार्कर’ सिस्टम लागू करने का निर्णय लिया था। यह कदम इसलिए उठाया गया जिससे पेट्रोल व डिजल में केरोसीन की मिलावट को रोका जा सके। इसके लिए एक ब्रिटिश कंपनी ‘आथेंट्रिक्स’ व उसके भारतीय एजेंट एस.जी.एस. को नियुक्त करने का आदेश तत्कालीन पेट्रोलियम सचिव एम.एस. श्रीनिवासन ने तेल कंपनियों को दिया। इस कंपनी को 200 करोड़ करोड़ रुपए का ठेका देने से पहले ना तो ‘मार्कर’ के माप दंड, पर्यावरण प्रभाव, फार्मूला व टेंडर देखे गए और न ही विशेषताओं का आकलन किया गया। निजी कंपनी को पेट्रोल पंप पर निरीक्षण करने का आदेश भी मंत्रालय ने 15 फरवरी 2007 को पारित कर दिया। इस तरह के एक तरफा निर्णय से तेल कंपनियों के बिक्री अधिकारी अंसतुष्ट थे और उन्होंने सिंह व श्रीवास्तव को अवगत कराया कि एस.जी.एस. के कर्मचारी पंपो से ‘‘झूठा फेल’’ दिखा कर हफ्ता वसूली कर रहे है। ज्ञात रहे कि 1अक्टूबर 2006 को पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने स्वयं इंडियन आयल के बिजवासन टर्मिनल में उपरोक्त ‘मार्कर’ का उद्घाटन किया था, इस समारोह में स्थानीय सांसद सज्जन कुमार, पेट्रोल डीलर एसोशियन के अध्यक्ष अशोक बघवार उपस्थित थे। श्रीनिवासन सहित तेल कंम्पनियों के अनेक उच्च अधिकारी भी समारोह में उपस्थित थे।

नवम्बर 2007 में मुंबई के एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने आर.टी.आई. एक्ट का प्रयोग करेक ‘मार्कर’ खरीद संबंधी जानकारी तेल कंपनियों व मंत्रालय से मांगी। शुरुआती ना नुकुर के बाद 6 मई को इंडियन आयल ने उक्त जानकारी उपलब्ध करवा दी।

इस जानकारी को आधार मान कर सिंह व श्रीवास्तव ने 12 मई 2008 को सीबीआई के क्षेत्रीय निदेशक के सम्मुख लिखित शिकायत दर्ज करवा दी। यहां यह बताना जरूरी है कि सरकार के Whistle Blower Protection प्रस्ताव में यह कहीं नहीं कहा गया है कि शिकायत सीवीसी को ही की जाए। यहां उल्लेखनीय है कि यह मामला उन विशेष मामलों में से एक है जिसमें किसी अधिकारी ने अपने नियोक्ता के विरूद्ध भ्रष्टाचार की शिकायत दर्ज करवाई हो।

शिकायत दर्ज होते ही सरकार का दमनचक्र पूरी तेजी से चल पडा। 4 दिनों के अंदर ही सिंह को उसके क्षेत्र में एक पेट्रेल पंप पर वित्तीय गड़बड़ी का हवाला देकर निलंबित कर दिया गया। निलंबन के विशेषाधिकार का प्रयोग कर, उसके कार्यालय में प्रवेश, ईमेल, आदि बंद कर दिए गए। अशोक सिंह के क्षेत्र में कुल ऐसे 140 पंप थे। दोनों अधिकारियों ने 27 मई को को पत्र लिख कर सीवीसी से ‘प्रोटेक्शन’ की मांग की। 6 जून, 22 जुलाई व 7 अगस्त को स्वयं सीवीसी सुधीर कुमार से स्वयं मिलकर उन्हें पूरे घटनाक्रम से अवगत कराया। सीवीसी कार्यालय का अनुभव इन अधिकारियों पर गाज की तरह गिरा। जितने बार यह उस कार्यालय में गए हर बार एच.पी.सी.एल. ने एक नया केस इन पर लगा दिया।

रवि श्रीवास्तव को एक आरोप पत्र 30 जुलाई 2008 और एक कारण बताओ नोटिस 2 सितंबर 2008 को दे दिया जिसमें आधारहीन आरोप लगाए गए। उदाहरण के लिए कहा गया कि 6 जून 2008 को श्रीवास्तव ने मार्कर संबंधी कोई तकनीकी रिपोर्ट एसोशिएशन के सूचनापट पर लगा दी जब कि वह 6 जून को दिल्ली में CVC कार्यालय में थे और वह तकनीकी रिपोर्ट 21 मई 2008 को ही पेट्रोलियम क्षेत्र की एक वेबसाईट indianpetro.com पर प्रकाशित हो चुकी थी।

30 अक्टूबर को सीवीसी ने आदेश पारित करके पूरे मामले से अपना पल्ला झाड़ लिया। सीवीसी के आदेश में कहा गया कि ‘‘दोनों अधिकारी केवल शिकायती है और इन्हें कार्य संबंधित किसी प्रकार का प्रोटेक्शन नहीं दिया जा सकता’’

16 जून 2008 को मुंबई उच्च न्यायालय में ‘मार्कर’ घोटाले पर एक जनहित याचिका दाखिल की गई। यह याचिका सामाजिक कार्यकर्ता सिमप्रीत सिंह ने की थी माननीय उच्च न्यायालय नें अपने निर्णय में 23 अक्टूबर 2008 को सीबीआई को मामलें की जांच करने का आदेश दे दिया और मंत्रालय के सतर्कता विभाग को अलग से जांच करने को कहा। 21 अपै्रल 2009 को मुंबई सीबीआई ने प्राथमिक जांच दर्ज कर ली।

31 दिसम्बर 2008 को बिना किसी प्रकार का कारण बताए देश भर में ‘मार्कर’ प्रणाली को बंद कर दिया गया जो आज तक बंद है। करोड़ों रुपए का ‘मार्कर’ रसायन जो तेल कंपनियों के पास पडा था वह बरबाद हो गया।

इस बीच सिंह व श्रीवास्तव के विरूद्ध 7 मई 2008 के आरोप पत्र की जांच शुरू कर दी गई जो उनके विरोध करने व गवाहों को बुलाने के आग्रह के बावजूद 11 नवम्बर को समाप्त कर दी गई। इस बीच श्रीवास्तव के सहायकों को हटा दिया गया। वेतन व भत्तों में कटौती कर दी गई और उन्हें उनके कार्यालय से निकाल सीढ़ियों के नीचे बैठने की जगह दी गई। इस सब का उद्देश्य उन्हें भी कंपनी से निकालना ही था। 7-9 जनवरी 2009 का जब देश भर के तेल अधिकारी हडत़ाल पर गए तब एच.पी.सी.एल. के अधिकारियों को उकसाने के आरोप में उन्हें भी निलंबित कर दिया गया। आश्चर्यजनक बात यह थी एच.पी.सी.एल. हडताल में शामिल ही नहीं थी तथा श्रीवास्तव स्वंय हडताल के दौरान कार्यालय में ही थे।

6 मई की जांच रिपोर्ट को आधार मान कर दोनों अधिकारियों को 12 मार्च 2009 को H.P.C.l. से बरखास्त कर दिया गया। श्रीवास्तव को 2 अगस्त 2009 को भरी बरसात में सामान सहित कंपनी के घर से निकाल दिया गया। इस निर्णय के विरोध में की गई अपील को 1 अक्टूबर 2009 को खारिज कर दिया गया। 21 सितम्बर 2009 को CNN - IBN ने अपनी ब्रेकिंग न्यूज में मार्कर घोटाले का पर्दाफाश किया और बताया कि ‘आथेंट्रिक्स’ विदेश में ‘Biocode’ के नाम से पहले से ही काली सूची में थी, और जो मार्कर 13000/- प्रति लीटर की दर से खरीदा गया उसका कोई मूल्यांकन ही नहीं किया गया था। 22 जून को टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा कि ‘मार्कर’ Carciongenic है यानि इससे मनुष्य को कैंसर जैसी गंभीर बीमारी भी हो सकती है यह बात H.P.C.l. D S R & D सलाहकार ए. के. भटनागर ने पेट्रोटेक 2005 के सेमिनार में जनवरी 2005 में ही बता दी थी। इंडियन एक्सप्रेस ने 5 अक्टूबर 2008 के समाचार में लिखा कि यह मार्कर जो करोडों रुपए में खरीदा गया था उसे मामूली Clay से साफ किया जा सकता था।

एच.पी.सी.एल. ने जुलाई 2008 में अधिकारियों की एसोशिएशन - HPMSA की मान्यता रद्द कर दी और आधे से ज्यादा अधिकारियों को डरा धमका कर उनसे सदस्यता से इस्तीफा ले लिया। यद्यपि श्रम न्यायालय ने 31 अगस्त 2009 को एसोशिएशन की मान्यता बहाल कर दी।

एच.पी.सी.एल. ने जिस तरह अपमानित करके दो साहसी अधिकारियों को बरखास्त किया वह तेल कंपनियों के इतिहास में काले अक्षरों से लिखा जाएगा। 200 करोड़ रुपए के घोटाले का पर्दाफाश करने वाले अधिकारियों के साथ ऐसा बर्ताव दूसरों को उदाहरण देने के लिए किया गया कि भविष्य में अगर कोई अधिकारी इस तरह का दुस्साहस करेगा तो उसका क्या परिणाम होगा।

सीवीसी और सीबीआई का बर्ताव पूरे घटनाक्रम में अत्यंत संदेहास्पद रहा है। मंत्रालय ने मुंबई उच्च न्यायालय के आदेश पर जांच की या नहीं यह सारे प्रश्न अनुत्तरित हैं दोनों अधिकारियों ने अपनी बरखास्तगी को रद्द करने के लिए मुंबई उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर दी है। दोनों अधिकारी पेशे से इंजीनियर हैं और 3 दशकों के उनके कार्यकाल में उनके विरुद्ध कभी किसी प्रकार का कोई आरोप नहीं लगा था। बल्कि दूसरे अधिकारियों के समक्ष उनकी कार्यक्षमता व योग्यता का उदाहरण दिया जाता था।








रवि श्रीवास्तव

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